Zenab rehan

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दूसरा अध्याय





इस पर बहुत अधिक बातें लिखी जा चुकी हैं। इसका स्पष्टीकरण भी बूखबी किया जा चुका है। इसलिए यहाँ या आगे कुछ भी लिखना बेमानी है। फिर भी जिस कर्मयोग का निरूपण आगे चल के 47वें श्लोक में शुरू करेंगे वह सचमुच निराली चीज है, गीता की अपनी खास देन है। इसीलिए और कहीं वह पाई जाती नहीं। अधूरी-सी कहीं मिले भी तो क्या? सर्वांगपूर्ण कहीं भी नहीं मिलती। इसीलिए उसके पूर्व अर्जुन का दिमाग उसके अनुकूल कर लेना जरूरी था। सर्वसाधारण परंपरा के अनुसार वह वैसी बात एकाएक सुन के चौंक उठता कि यह क्या चीज है? यह तो अजीब बात है जो न देखी न सुनी गई ऐसा खयाल करके वह उस बात से हट सकता था। कम से कम यह तो जरूर हो जाता कि उसका दिल-दिमाग उसमें पूरी तौर से लगता नहीं। उसमें उसे चसका तो आता नहीं, मजा तो मिलता नहीं। फिर तो वैसे गंभीर विषय को हृदयंगम करना असंभव ही हो जाता। इसीलिए उससे पहले के सात श्लोकों में उसी का रास्ता साफ कर रहे हैं।

कर्मकांड एवं धर्माधर्म के निर्णय तथा अनुष्ठान का सारा दारमदार सिर्फ मीमांसाशास्त्र और मीमांसकों पर ही है। उनका अपना यही खास विषय है। इसीलिए उनने इस संबंध की बहुत-सी बातें लिखते हुए लिखा और माना है कि कर्मों के करने में कौन-कौन से विघ्न होते हैं, कैसा हो जाने पर सारा किया-कराया चौपट हो जाता है, क्या हो जाने पर पुण्य के बदले पाप ही पाप हो जाता है और सांगोपांग कर्म पूरा न हो जाने पर उसका फल नहीं मिलता। इस तरह की हजारों बातें और बाधाएँ कर्ममार्ग में बताई गई हैं, खतरे खड़े किए गए हैं। यदि इनसे बचने का कोई भी रास्ता हो तो कितना अच्छा हो? तब तो लोग आसानी से मीमांसकों का मार्ग छोड़ के वही मार्ग पसंद करें। गीता ने लोगों की इस मनोवृत्ति का खयाल करके पहले तो यही किया है कि कर्मयोग में इन खतरों का रास्ता ही बंद कर दिया है। वहाँ थोड़ा-बहुत या अधूरा काम होने पर भी न तो पाप का डर है, न विफलता की परेशानी और न दूसरी ही दिक्कत।

मीमांसकों के मार्ग में दूसरी दिक्कत यह होती है कि उन्हें परेशानी बड़ी होती है। पहले तो हजारों तरह के उद्देश्यों को ले के कर्म किए जाते हैं। फिर एक-एक उद्देश्य की शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं और शाखा-प्रशाखाओं की भी शाखा-प्रशाखाएँ। लोभ-लालच का कोई ठिकाना भी तो होता नहीं। ज्योंही सफलता हुई या उसकी आशा नजर आई कि नई-नई कामनाएँ पैदा होने लगती हैं। यह भी होता है कि शक-शुबहे में कभी मन इधर जाता है और कभी उधर - कभी आगे बढ़ने को मुस्तैद होता है, तो कभी पीछे खिसक पड़ता है। इस तरह हजारों तरह की आशा-आकांक्षाओं, कल्पनाओं एवं उमंग-मनहूसियों के घोर जंगल में भटकता रहता है और कभी भी चैन मिलता नहीं। गीता ने इस सारी बला से भी बचने का रास्ता कर्मयोग को ही माना है। उसने साफ कह दिया है। फिर तो लोग उधर उत्सुक होंगे ही।

मीमांसकों की एक तीसरी चीज यह है कि वह स्वर्ग, धन, राज्य आदि सुख साधनों की गारंटी करते हैं। वे कहते हैं कि विविध कर्मों के अलावे दूसरा उपाय हई नहीं कि ये सभी चीजें हासिल की जा सकें। यह भी नहीं कि इन्हें कोई चाहता न हो। ये सभी लोगों की अभिलषित हैं। इसमें कोई भी शक नहीं। परंतु हजार युद्धादि के संकटों को पार करने पर भी इन सभी की गारंटी है नहीं। स्वर्गादि तो युद्ध से शायद ही मिल सकें। यह तो कर्म मार्ग ही ऐसा है कि इन सभी पदार्थों को प्राप्त करवा देता है। उससे आसान रास्ता, सभी बातों पर गौर करने के बाद, दूसरा रही नहीं जाता।

बेशक उनकी यह बात काफ़ी मोहनी रखती है। मगर गीता ने कह दिया है कि ये पदार्थ बड़ी दिक्कत से यदि मिलें भी तो इनके लिए, और इनके परिणाम स्वरूप भी, जन्म-मरण का सिलसिला निरंतर लगा ही रह जाता है। जन्म-मरण के कष्ट किसे पसंद है? यह भी बात है कि मनोरथों में जब इस तरह मनुष्य फँस जाता है तो उसे कोई और बात सूझती ही नहीं। स्वर्गादि की हाय-हाय के पीछे एक तरह से वह अंधा हो जाता है। उसे चैन तो कभी मिलता नहीं। यह करो, वह करो, यह क्रिया बिगड़ी, उस कर्म में विघ्न, इसकी तैयारी, उसकी पूर्ति की हाय तोबा दिन-रात लगी ही तो रहती है। अगर इतनी बेचैनी के बाद यदि ये चीजें मिलीं भी तो किस काम की? यह भी बात है कि मिलने पर चसका लग जाने से फिर जन्म, पुनरपि क्रिया, फिर मरण, यह ताँता टूटता ही नहीं। मनुष्य विषयासक्त हो के विवेक मार्ग से जानें कितनी दूर जा पहुँचता है और कोई निश्चय कर पाता नहीं। मगर कर्मयोग इन सभी झंझटों से पाक साफ है।

चौथी बात उनकी यह है कि वेदों की आज्ञा जब यही है तो किया क्या जाए? उनके आदेशों को कौन टाले? हिम्मत भी ऐसी किसकी हो सकती है? इसलिए चाहे हजार दिक्कत मालूम हो, फिर भी इसमें आना ही पड़ेगा। इसका उत्तर गीता साफ ही देती है कि ये तो सांसारिक झमेले हैं, दुनिया की झंझटें हैं जिनमें ये कर्म हमें फँसाते हैं। हमें चैन लेने तो ये देते नहीं। वेदों का काम भी तो यह आफत ही है न? वह भी तो इस त्रिगुणात्मक संसार में ही हमें फँसाते हैं। आखिर वह भी तो त्रिगुण के भीतर ही हैं। इसीलिए तो 'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' ही है। लेकिन जिसे दुनिया की, सांसारिक पदार्थों की परवाह न हो वह क्या करे? वह इन वेदों के झमेले में क्यों पड़े? वेदों से अभिप्राय है उसके कर्मकांड भाग से ही। क्योंकि वही वेदों का प्रधान भाग है - प्राय: सब कुछ है। ज्ञान कांड तो बहुत ही थोड़ा है - एक लाख में सिर्फ चार हजार! वेदों के एक लाख मंत्रों में पूरे छियानबे हजार कर्मकांड के और केवल चार हजार ज्ञानकांड के माने जाते हैं। 'लक्षं तु वेदाश्चत्वार:' कहा है। गृहस्थों के यज्ञोपवीत के छियानबे चतुरंगुलों का अभिप्राय उन्हीं छियानबे हजार से है। संन्यासी को यज्ञोपवीत नहीं है। उसका ताल्लुक चार ही हजार से जो है और है वह छियानबे के बाहर! बस, गीता ने कह दिया कि - 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी'। संसार की त्रैगुण्य की परवाह छोड़ दो और वेदों के दायरे से बाहर आ जाओ। फिर तो कर्मयोग का रास्ता साफ है।

ऐसी दशा में आखिरी और पाँचवाँ सवाल यही हो सकता है कि इस प्रकार संसार के भौतिक पदार्थों से लापरवाह होने से काम कैसे चलेगा? वेदों का आश्रय लेते हैं क्या उन पर रहम करके, या किसी की मुरव्वत से? उनके बिना हमारा काम चलता जो नहीं। वेदों में तो छोटे-बडे सभी कर्म आते हैं और उनके बिना हमारी रोज की जरूरतें भी पूरी हो पातीं नहीं। जब हम संसार से बिरागी हो जाएँगे तो वेदों की परवाह नहीं करेंगे, यह कहना जितना आसान है इस पर अमल करना उतना ही सहज नहीं है। क्योंकि तब हमारी जरूरतें कौन पूरा करेगा? हमारी चीज-वस्तु की रक्षा भी कौन करेगा? एक यह बात भी है कि वैदिक कर्मकांड से संकटों से तो हम जरूर बच जाएँगे। मगर उनके चलते जो आनंद मिलता है उसकी कमी कैसे पूरी होगी? वह तो रही जाएगी न? कर्मयोग के आनंद में स्वर्ग का आनंद कैसे मिलेगा? यह तो असंभव है।

इसका सीधा उत्तर गीता यही देती है कि इसमें सभी चीजें आ जाती हैं। कुएँ, तालाब, नदी वगैरह सभी का काम एक अकेला समुद्र जैसा लंबा-चौड़ा जलाशय ही दे सकता है। फिर इन चीजों को अलग जरूरत नहीं रह जाती। उसी प्रकार जिसने कर्मयोग का रहस्य जान लिया उसे सभी वैदिक कर्मों के फलों की - आनंद की प्राप्ति होई जाती है। उसके भीतर अमृत-समुद्र की जैसी गंभीरता होती है मस्ती रहती है। फिर और चीजों की जरूरत ही क्यों हो? जरूरत की चीजों की प्राप्ति और रक्षा - योग-क्षेम - भी होता ही रहता है। यह तो आगे 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22) में कहा ही है।

यही पाँच बातें, या यों कहिए कि मीमांसकों की पाँच मुख्य दलीलों के उत्तर क्रमश: 40 से 46 तक के सात श्लोकों में दिए जाके कर्मयोग की पूरी भूमिका तैयार कर दी गई है। इनमें पहले दो (40-41) श्लोकों में क्रमश: पहली दो बातें आती हैं। फिर बाद के तीन (42-44) श्लोकों में तीसरी आती है। अनंतर 45वें चौथी और 46वें में पाँचवीं आ जाती है।

नेहाभिक्रमनाशाऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रा यते महतो भयात्॥ 40 ॥

इस (योग) में (किसी भी) कदम - काम - का नाश तो होता नहीं - कोई भी कदम बेकार नहीं जाता, इसमें पाप (का सवाल) हई नहीं और इस (महान) धर्म का थोड़ा भी (अनुष्ठान) (इसके करने वाले को) महान भय से बचा लेता है। अर्थात इसमें कोई खतरा भी नहीं है कि कहीं अधूरा रह जाने में उलटा ही परिणाम हो जाए। इसका परिणाम सदा ही सुंदर होता है। 40।

यहाँ अभिक्रम का अर्थ हमने कदम किया है और यही अर्थ उस शब्द का दरअसल है भी। कोई भी काम शुरू करने के मानी में कदम उठाना या बढ़ाना बोलते हैं। अंग्रेजी में इसी को स्टेप (Step) कहते हैं। कहने का आशय यहाँ यही है कि इस कर्मयोग के सिलसिले में उठाया गया कोई भी कदम बेकार नहीं जाता। इसी प्रकार महान भय से रक्षा का भी यही अभिप्राय है कि जैसे और कामों में खतरे हुआ करते हैं और अगर किसी आफत से बचने के लिए कोई उपाय किया जाए तो जब तक वह पूरा न हो जाए उस आफत से छुटकारा नहीं होता, सो बात यहाँ नहीं है। न तो यहाँ कोई खतरा है और न यही बात कि काम पूरा न हुआ तो आफत से पिंड न छूटेगा। यहाँ तक कि आवागमन जैसे बड़ी से बड़ी बला से भी छुड़ा लेता है इस चीज का थोड़ा भी अनुष्ठान। फिर तो निर्वाणमुक्ति ध्रुव हो जाती है।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनंदन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ 41 ॥

हे कुरुनंदन (अर्जुन), इसमें तो एक ही (तरह) की बुद्धि रहती है (सो भी) निश्चयात्मक। (विपरीत इसके और मार्ग में) अनिश्चयात्मक बुद्धिवालों की बुद्धियाँ (एक तो) असंख्य होती हैं। (दूसरे उनमें भी हरेक की) अनेक शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं। 41।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।

वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ 42 ॥


कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥ 43 ॥

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया पहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धि : समाधौ न विधीयते॥ 44 ॥

हे पार्थ, वेद के कर्म-प्रशंसक वचनों को ही सब कुछ मान के उनके अलावे असल चीज दूसरी हई नहीं ऐसा कहनेवाले, वासनाओं में डूबे हुए मनवाले और स्वर्ग को ही अंतिम ध्येउय माननेवाले नासमझ लोग इस तरह के जिन लुभावने (वैदिक) वाक्यों को दुहराते रहते हैं उन (वचनों का तो सिर्फ यही काम है कि) भोग और शासन की प्राप्ति के लिए ही अनेक तरह के बहुत से कर्मों की बताएँ। (इस तरह) उनका नतीजा यही है कि लोग बार-बार जनमते तथा कर्म करते रहें। जिन भोग एवं शासन के लोलुप लोगों की बुद्धि वैसे ही वचनों में फँस चुकी है। उनके दिमाग में तो (कभी) निश्चयात्मक बुद्धि पैदा ही नहीं होती। 42। 43। 44।

इन तीन श्लोकों में जिन लोगों का सुंदर चित्र खींचा गया है वही कर्मकांडी मीमांसक लोग हैं। उन्हें नासमझ कहके फटकार सुनाई गई है। 'अपाम सोमममृता अभूम' - 'सोमयाग में सोम का रस पी के हम लोग अमर बन गए,' स्वर्ग में देवताओं की इस तरह की गोष्ठी और बातचीत का उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों में पाया जाता है। कठोपनिषद् के प्रथमाध्या य की द्वितीयवल्ली के शुरू के पाँच मंत्रों में कल्याण या मोक्ष के मुकाबिले में स्वर्गादि पदार्थों तथा उनके इच्छुकों की घोर निंदा की गई है। इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुंडक के दूसरे खंड के शुरू के दस मंत्रों में विस्तार के साथ लिखा गया है कि कर्मकांडी लोग किन-किन कर्मों को कैसे करते और उन्हें कौन-कौन से फल कैसे मिलते हैं। वहीं दसवें मंत्र 'इष्टपूर्त्तं मन्यमाना वरिष्ठा:' में 'प्रमूढ़ा' शब्द आया है जो गीता के इन श्लोकों के 'अविपश्चित:' के ही अर्थ में बोला गया है। उस मंत्र में जो बातें लिखी हैं उनका उल्लेख भी कुछ-कुछ इन तीन श्लोकों में पाया जाता है। इनके सिवाय 'दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत्,' 'ज्योतिष्ठोमेन स्वर्गकामो यजेत्,' तथा 'वाजपेयेन स्वराज्यकामो यजेत्' आदि ब्राह्मण वचनों में कर्मठों के कर्मों एवं उनके फलों का पूरा वर्णन मिलता है। वहाँ इनकी प्रशंसा के पुल बाँधे गए हैं। इन्हीं प्रशंसक वचनों को वेदवाद और अर्थवाद कहते हैं। इन्हें पढ़ के लोग कर्मों में फँस जाते हैं। इसी का निर्देश इन श्लोकों में है। पूर्वोक्त मुंडक के वचनों में 'एक ने प्लवाह्येते अदृढ़ा यज्ञरूपा:' (1। 2। 7) के द्वारा इन यज्ञयागों को कमजोर नाव करार दिया है, जिस पर चढ़नेवाले अंत में डूबते हैं। गीता ने भी इसलिए इनकी निंदा की है।

इनमें चसक जाने पर मनुष्य को दूसरी बात सूझती ही नहीं। एक बार इन्हें करके जब इनके रमणीय फलों को भोगता है, या ऐश्वर्य - शासन और इंद्र आदि की गद्दी - प्राप्त कर लेता है तो फिर बार-बार इन्हीं के करने पर उतारू होता है। यही चसका है। इसका नतीजा यही होता है कि जन्म ले के इन्हें करता, मरके फल भोगता और चसक के स्वर्गादि फल भोगने के बाद पुनरपि जनमता और कर्म करता है। यही चक्कर चलता रहता है। एक कोढ़ी और गंदे स्वभाव के आदमी की कहानी है कि वह साल भर में कभी शायद ही नहाता हो। जाड़ों में तो हर्गिज नहीं। मगर घोर जाड़े में मकर की संक्रांति के दिन तड़के ही जरूर नहा लेता था। क्यों? क्योंकि उसने सुना था कि माघ के महीने में सूर्योदय के ठीक पहले पानी बहुत तेज चिल्लाता है कि यदि महापापी भी हममें एक गोता लगा ले तो उसे फौरन पवित्र कर दें - 'माघमासि रटन्त्याप: किंचिदभ्युदिते रवौ। महापातकिनं वापि कं पतन्तं पुनीमहे।' यही है वेदवादों और अर्थवादों की मोहनी शक्ति जिसका उल्लेख यहाँ है।

इस श्लोक में समाधि शब्द का अर्थ दिमाग या अंत:करण लिखा गया है। अनेक माननीय भाष्यकारों ने यही अर्थ किया है और यह घटता भी है अच्छी तरह। मगर समाधि का अर्थ योग करना भी ठीक ही है। 'समाधिस्थस्य' (2। 54) के व्याख्यान में हमने इस ओर भी इशारा किया है। यहाँ 'समाधि के लिए' यही अर्थ 'समाधौ' का है जैसा कि 'यतते च ततो भूय: संसिद्धौ' (6। 43) में 'संसिद्धौ' का अर्थ है। 'संसिद्धि के लिए'। यहाँ अभिप्राय यही है कि आगे जिस योग का निरूपण है उसके लिए जो मूलभूत जरूरी बुद्धि है वह ऐसे लोगों को होती ही नहीं।

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ 45 ।

हे अर्जुन, वेद तो (प्रधानतया) त्रैगुण्य या सांसारिक बातों के ही प्रतिपादक हैं। तुम इन बातों को छोड़ो, राग-द्वेषादि द्वन्द्व - जोड़े - दो दो - से रहित हो, हमेशा सत्त्वगुण की ही शरण लो, योगक्षेम की परवाह छोड़ दो, मन को वश में करो और आत्मतत्त्व में रम जाओ। 45।

यहाँ कुछ बातें जान लेने की हैं। साधारणतया खयाल हो सकता है कि जब त्रैगुण्य शब्द यहाँ आया है जिसका अर्थ है तीनों गुणों से बनाया त्रिगुणात्मक, तो यहाँ तीनों ही गुण बुरे बताए गए हैं। मगर सत्त्वगुण तो प्रकाशमय होने से ज्ञानवर्द्धक है। इसलिए उसे क्यों बुरा कहा। इतना ही नहीं। आगे उत्तरार्द्ध में लिखते हैं कि बराबर सत्त्वगुण की शरण लो - 'नित्यसत्त्वस्थ:'। यदि बुरा होता तो सत्त्व की शरण जाने की बात कहते क्यों? तब तो परस्पर विरोध हो जाता न? इसलिए सत्त्व को बुरा कहना ठीक नहीं। हाँ, रज और तम तो बुरे जरूर ही हैं। उनके बारे में कोई शक नहीं।

असल में तीनों गुणों का क्या स्वरूप है, काम है और यह करते क्या हैं, इसका पूरा विवरण गीता के चौदहवें अध्या य में मिलता है। वहाँ देखने से पता चलता है कि जीवात्मा को बांधने और फँसाने का काम तीनों ही करते हैं। इसमें जरा भी कसर नहीं होती। सत्त्व यदि ज्ञान और सुख में फँसा देता है तो बाकी और-और चीजों में। मगर फँसाते सभी हैं। इसलिए 'बध्ना ति', 'निबध्नणन्ति' आदि बंधन वाचक पद वहाँ बार-बार सभी के बारे में समानरूप से आए हैं। इसीलिए जो मनुष्य इनके पंजे से छूट जाता है उसे उसी अध्या-य के अंत में गुणातीत - तीनों गुणों से रहित उनके पंजे से बाहर - कहा गया है। इन तीनों से अपना पल्ला कैसे छुड़ाया जाए, यह प्रश्न करके उत्तर भी लिखा गया है। इसी तरह 'त्रिभिर्गुणभयैर्भावै:' (7। 13-14) आदि दो श्लोकों में, बल्कि इनके पूर्व के 12वें में भी यही लिखा है कि त्रिगुणात्मक पदार्थ ही लोगों को मोह में, भ्रम में, घपले में डालते हैं।


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